अखबारों का आज का मौन सवाल ‘‘कौन नेहरू ?’’
स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा जवाहरलाल नेहरू को उनके जन्म दिन पर मेरा सलाम ! उनके जन्म दिन के अवसर पर मीडिया ने इस बार नेहरू को जितना नजरअंदाज किया,उतना संभवतः इससे पहले कभी नहीं किया था। आज के एक दर्जन अखबारों को देखने से लगा कि अब चचा नेहरू इतिहास के हाशिये पर हैं। सिर्फ इक्का- दुक्का कवरेज ही है। ऐसा क्यों है ? कोई बताए तो अच्छा रहेगा। उससे पहले मैं थोड़ा बताता हूं।
डा.राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि किसी नेता के निधन के सौ साल के बाद ही उसकी मूत्र्ति लगनी चाहिए। क्योंकि सौ साल में इतिहास यह निर्णय कर देता है कि उस नेता ने देश के लिए कितना भला और कितना बुरा किया। सौ साल से पहले ही लेनिन की मूत्र्ति वहीं के लोगों ने तोड़ दी। फिर भी मैं कम से कम से दो बातों को लेकर नेहरू का प्रशंसक हूं।
एक तो जालियांवाला बाग नर संहार से क्षुब्ध होकर उसके तत्काल बाद जवाहरलाल आजादी की लड़ाई में कूद पड़े।
--आरामदायक जीवन छोड़कर।
दूसरी बात यह कि प्रधान मंत्री बनने के बाद उन्होंने अपने लिए नाजायज तरीके से धनोपार्जन नहीं किया। उन्होंने क्या-क्या गलत किया,जिस कारण आज वे लगभग बिसार दिए गए, वह सब बताने के लिए यह अवसर नहीं है। सिर्फ यही कहा जा सकता है कि अपवादों को छोेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेड़कर आज देश को यह लग रहा है कि नेहरू के बिना भी उसका काम चल सकता है।
जबकि उनके जीवन के आखिरी दिनों में अक्सर अखबारों में यह चिंता व्यक्त की जाती
थी कि ‘‘नेहरू के बाद कौन ?’’
ऐसी चिंता व्यक्त करने वाले सोचते थे कि उनकी जगह लेने लायक इस देश में कोई नेता अब उपलब्ध ही नहीं हैं। उन्हें कुछ लोगों ने उन्हें अर्ध देवता का दर्जा जो दे रखा था ! जो बुद्धिजीवी वैसा सोचते थे,उनके मानस पुत्र भी आज नेहरू पर लगभग मौन हैं। यानी, क्या उनके लिए भी नेहरू अप्रासंगिक हो चुके हैं ?
(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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