पूर्व मुख्य मंत्री जीतनराम मांझी ने मन मोह लिया। उन्होंने अपने कार्यकत्र्ताओं व शुभ चिंतकों से कहा कि वे गुलदस्ता व माला की जगह किताब लेकर आएं। यही उत्तम उपहार होगा।
ऐसी अपील अन्य छोटे-बड़े नेताओं को भी अपने लोगों से करनी चाहिए। यदि किताब नहीं तो कलम सही। सिर्फ जीत पर खुशी जाहिर करने के लिए ही नहीं, बल्कि आम दिनों में भी मांझी जी की सलाह मानी जानी चाहिए। आम दिनों में लोग अक्सर किसी के यहां मिठाई लेकर चले जाते हैं। पर अधिकतर दुकानों की मिठाइयां मिलावटी होती हैं।
उससे कैंसर का भी खतरा हो सकता है।
इसलिए जिस मित्र,नेता या परिचित को पढ़ने- लिखने में रूचि हो ,उसके यहां मिठाई के बदले किताब या कलम लेकर जाइए।
इस तरह यदि किसी के यहां बहुत सारी किताबें-कलमें एकत्र हो जाएं तो वे उसे आगंतुकों के बीच बांट दें। गरीब छात्रों को कलम या पठनीय किताब दे दें। यदि कोई आपके पास गांधी पर पुस्तक लेकर आए तो आप उसे अपने पास रखी लोहिया या आम्बेडकर या किसी अन्य महा पुरुष की किताब उपहार में दे दें।
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कर्पूरी ठाकुर को भी लोगबाग अक्सर बहुत पुस्तकें दिया करते थे। कम ही लोग जानते हैं कि कर्पूरी जी अध्ययनशील नेता थे। हालांकि उन्हें दौरों से कम ही फुर्सत मिलती थी। कर्पूरी जी का बहुत बड़ा निजी पुस्तकालय बन गया था। सत्तर के दशक में जब मिथिला विश्वविद्यालय की स्थापना हो रही थी तो उसके वे लाइफ मेम्बर बन गए। लाइफ मेम्बर के लिए सवा लाख रुपए देने पड़ते थे। कर्पूरी जी ने करीब एक लाख रुपए की किताब दे दी थी।बाकी नकद। विघ्नसंतोषियों ने बड़ा हल्ला हुआ --कर्पूरी जी के पास एक लाख रुपए आया कहां से ? पर, सच्चाई यह थी कि वह दान मुख्यतः पुस्तक के रूप में था।
(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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