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Wednesday, November 4, 2020

लाल कम्युनिस्ट अब बदरंग होंगे


मार्क्सवादी कम्युनिस्टों की लालिमा कभी दमकती थी। अगले दशक में बदरंग हो जायेगी। अगले नये वर्ष में तो ज्यादा फीकी पड़ जायेगी। मटमैला अथवा नारंगी। गनीमत है श्वेत—श्याम की मिलावटी नहीं। वैचारिकता की कसौटी पर खोटी उतरेगी। इनका कारण : गत मंगलवार (27 अक्टूबर 2020) को माकपा की नीति—निर्धारिणी केन्द्रीय समिति ने तय किया कि आगामी अप्रैल में होने वाले पश्चिम बंगाल की विधानसभा निर्वाचन में सोनिया—कांग्रेस का वह पल्लू पकड़ेगी। चुनावी गठबंधन करेगी। मकसद है कि दशक से सत्ता पर काबिज ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को परास्त किया जाये। विडंबना यह है कि ये दोनों सौ साल पुराने राष्ट्रीय दल एक प्रांतीय दल (तृणमूल) को गिराने में जुटेंगे। प्राणपण से पूरी जोर लगाकर आजमाइश करेंगे।

इतना ही नहीं, मजाक तो फिर अगले मई में होगा जब माकपा और सोनिया—कांग्रेस आपस में सत्ता के लिए (मई 2021) केरल विधानसभा के निर्वाचन में आमने—सामने भिड़ेंगे। सत्तारूढ़ माकपा—नीत एलडीएफ (वाम लोकतांत्रिक मोर्चा) और प्रतिपक्ष का कांग्रेस—नीत संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा बंगाल सागरतट से ढाई हजार किलोमीटर दक्षिणी छोर अरब सागर तट पर हरीफ रहेंगे। सियासी अजूबा होगा। पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष रहे (रेल मंत्री) अब्दुल बरकत अताउल्लाह घनी खान चौधरी उर्फ बरकतदा (मालदा वाले) की आजीवन हसरत रही कि ''इन रूसी—चीनियों के अनुयायियों को बंगाल की खाड़ी की लहरों के सिपुर्द करना है।'' उनकी कांग्रेसी जूनियर ममता बनर्जी ने यह स्वयं कर दिखाया। चौंतीस वर्षों बाद माकपा से बंगाल आजाद कराया।

इन तीनों सेक्युलर पार्टियों का ध्येय यहीं है कि भाजपा को सिंहासन से नीचे ही रखा जाये। हालांकि यह दुश्वारी भरा लक्ष्य है। माकपा महासचिव येचूरी सीताराम का दावा है कि 2004 के संसदीय चुनाव में सोनिया—कांग्रेस माकपा गठबंधन में थी तो माकपा को केरल में 20 में से 18 लोकसभाई सीटें मिली थीं। तब सत्तासीन अटल बिहारी वाजपेयी—नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक सरकार हार गयी थी। सरदार मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन गये थे। मगर येचूरी सीताराम भूल गये कि भाजपा को पराजित करने का सौदा 2016 विधानसभा चुनाव में माकपा तथा सोनिया कांग्रेस का था। उन्हें यह भी याद रखना हो कि गत वर्ष के लोकसभा मतदान में माकपा, कांग्रेस तथा तृणमूल के विरूद्ध भाजपा को चालीस प्रतिशत वोट मिले थे और कुल 42 में से 18 सांसद जीते थे। इसके पूर्व (2016) माकपा तथा कांग्रेस के मिलाकर कुल वोट तब 32 प्रतिशत मात्र थे। यू अमित शाह और भाजपा मुखिया जेपी नड्डा आस लगाये बैठे है कि अगले ग्रीष्म ऋतु के पूर्व ही तृणमूल सरकार को छुट्टी मिल जायेगी। अर्थात कांग्रेस मुखिया (सोनिया गांधी) को तय करना है कि केरल में माकपा से हारकर सत्ता से बाहर रहें और मशहूर मेक्रील मछली, जो काफी लजीज मानी जाती है, को खो दें। मगर सोनिया बंगाल में जीत लें तथा ममता की हिलसा मछली का व्यंजन छीन लें। वे पंसद करेंगी बंगाल जहां मुख्य शत्रु भाजपा गिरेगी। यह अधिक लाभकारी होगा।

यहां काम्युनिस्ट पार्टी की दृष्टि कितनी कम दूरी वाली है और नासमझी भरी है, इसका अनुमान लगाना चाहिए। आन्ध्र प्रदेश विधान सभा का 1983 में चुनाव था साढ़े तीन दशकों से नेहरू—इंदिरा कांग्रेस को नब्बे प्रतिशत लोकसभाई सीटे और साठ फीसदी राज्य विधानसभा की सीटे दिलाने वाले इस राज्य में कांग्रेस का सफाया हो गया था। एनटी रामा राव की तेलगू देशम पार्टी को तीन चौथाई सीटें विधानसभा में मिली। उस दिन उत्तर प्रदेश विधान परिषद की प्रेस दीर्घा में हम बैठे थे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता सरजू पाण्डेय आये और मुझ तेलगूभाषी ने पूछा कि नौ माह पुरानी पार्टी को एक नचनिया (फिल्मस्टार एनटी रामाराव) ने सत्ता पर कैसे बिठा दिया? सवाल कुछ भद्दा सा था, लोकतांत्रिक शब्दावलि में इस सवाल में ही अभद्र उत्तर भी निहित था। मैंने कहा: '' सरजू भाई, भाकपा की स्थापना कानपुर में साठ साल पूर्व हुई थी। यूपी में आजतक आपकी भाकपा के छह एमएलए भी नहीं हुये। तो कारगर पार्टी कौन सी हुयी? आंध्र विधानसभा में जिसने नौ माह में 294 सीटें में से 199 जीती? एनटी रामाराव की? अथवा भाकपा? फिर कोई अनुपरक प्रश्न, जैसा के रिवाज है विधान परिषद में, पाण्डेयजी ने नहीं पूछा।

(वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)

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