आज यह माना जा रहा है कि इस साल का बजट चमत्कारी होगा, क्योंकि देश जिन मुसीबतों में से इस साल गुजरा हैं, वे असाधारण हैं। स्वाभाविक है कि देश की तात्कालिक आर्थिक और वित्तीय स्थिति को सम्हालने की भरपूर कोशिश इस बजट में की जाएगी लेकिन क्या यह मौका ऐसा नहीं है, जब देश में सच्चे समाजवाद की नींव मजबूत कर दी जाए। हमारे संविधान में समाजवाद शब्द 1976 में जरुर जोड़ा गया लेकिन आज भी भारत में वर्गवाद, भद्रलोकवाद और कुलीनवाद चला आ रहा है। साधारणजन और भद्रलोक की दो दुनिया अलग-अलग बसी हुई हैं। साधारणजन भारत में रहते हैं और भद्रलोक रहता है, इंडिया में। भारत और इंडिया के बीच खड़ी इस अभेद्य दीवार को जो भेद सके, वही बजट असाधारण कहला सकता है। यह कैसे होगा ? यह तभी हो सकता है कि जबकि भारत के 140 करोड़ नागरिकों को पांच चीजें लगभग अयत्नसिद्ध हों। इन्हें प्राप्त करने के लिए उन्हें कोई विशेष यत्न न करना पड़े। कौनसी हैं, ये पांच चीज़ें ? रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और चिकित्सा । इंसान को इंसान बने रहने के लिए कम से कम ये पांच चीजें तो चाहिए ही ! राज्य नामक संस्था का प्रथम कर्तव्य है कि वह अपने हर नागरिक के लिए इनका इंतजाम करे। यदि वह न कर सके तो उसे राज्य कहलाने का क्या अधिकार है ? भारत राज्य में ये पांचों चीजें हैं लेकिन सबको सुलभ नहीं हैं। ज्यादातर लोगों, 100 करोड़ से भी ज्यादा लोगों के लिए ये चीजें दुर्लभ हैं। उन्हें न्यूनतम भी उपलब्ध नहीं है। क्या कोई सरकार ऐसा बजट ला सकती है, जो देश के हर नागरिक को ये पांच चीजें मुहय्या करवा दे ? यह कठिन है लेकिन असंभव नहीं है। शिक्षा और चिकित्सा तो बिल्कुल मुफ्त कर दी जाए। इन दोनों में चल रही गैर-सरकारी लूटपाट पर तुरंत प्रतिबंध लगे और बजट ऐसा बने कि लोगों को आवश्यक रोटी, कपड़ा और मकान भी सस्ते से सस्ते सरकारी दामों पर मिल सके। करोड़ों लोगों को सस्ता अनाज अभी भी मिल रहा है। आमदनी पर टैक्स लगानेवाली सरकार अनाप-शनाप खर्चों पर टैक्स क्यों नहीं लगाती ? वह एक समतामूलक समाज क्यों नहीं पनपने देती ? अमेरिकी उपभोक्तावाद की नकल करने की बजाय वह अपरिग्रह के भारतीय सिद्धांत पर अमल क्यों नहीं करवाती ? वह भारत-राष्ट्र को भारत-परिवार में क्यों नहीं बदलने की कोशिश करती ? क्या किसी परिवार में उसका कोई सदस्य नंगा-भूखा रहता है ? वह योग्य हो, अयोग्य हो, अच्छा हो या बुरा हो, कमाऊ हो या मतकमाऊ हो, सक्षम हो या अपंग हो-- उसे पेट भरने को रोटी, पहनने को कपड़ा, सोने को दरी और बीमारी में दवा मिलती है या नहीं ? क्या भारत राष्ट्र को हम ऐसे बृहद परिवार में नहीं बदल सकते हैं ?
(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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