उदार इस्लाम ही समाधान है - Newztezz

Breaking

Saturday, October 31, 2020

उदार इस्लाम ही समाधान है


सोशलिस्ट गणराज्य फ्रांस जिसने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का सूत्र (5 मई 1789) दुनिया को दिया था, अब उसने विश्वव्यापी इस्लामी कट्टरता को नेस्तनाबूत करने का प्रण लिया है। वामपंथी समाजवादी राष्ट्रपति इम्मानुअल माक्रोन का ऐलान है कि इस्लाम अब खतरे में पड़ेगा। उनके क्रोध का कारण है उनके चार नागरिकों की मुस्लिम उग्रवादियों द्वारा हत्या। उनमें से एक मास्टर था। क्लास में पढ़ाता हुआ और दूसरी थी चर्च में प्रार्थना करते हुए एक वृद्ध महिला। दोनों का सर कलम कर डाला गया। हत्यारे इसे धार्मिक बदला कह रहे हैं। राष्ट्रपति माक्रोन ने सार्वजनिक घोषण भी कि ''खौफ अब अपना पाला बदलेगा। जिहादियों के खेमे में दिखेगा।'' इस बीच फ्रांस के खिलाफ इस्लामी एकजुटता को धक्का लगा जब शिया ईरान काराबाख में आर्मेनिया का पक्षधर बना तो सुन्नी तुर्की अजरबैजान की तरफ हो गया। हालांकि दोनो देश फ्रांस के विरूद्ध रहे। अब आपस में दोनों काराबाख रणभूमि में भिड़ गये।

भारत की नजर से यह फ्रांस का मसला अपने आप आन पड़ा है। अब साढ़े छह हजार किलोमीटर के फासले पर स्थित भोपाल और बरेली पर इन ईसाई बनाम मुस्लिम संघर्ष का असर दिख रहा है। तो एक प्रश्न जरुर उठता है कि सेक्युलर भारत का इस पश्चिमी यूरोपीय अन्तर्राष्ट्रीय टकराव से क्या नाता है? अलअक्सा मस्जिद की मीनार टूटी थी (1969) तो अहमदाबाद तथा अन्य शहरों में भीषण दंगे हुए। अंतत: मुस्लिम नेताओं ने गांधीवादी राज्यपाल श्रीमन नारायण से शान्ति हेतु हस्तक्षेप का आग्रह किया। तब शांति हुई। हालांकि उसे दौर में बड़ी तादाद में मुस्लिम मारे गये थे, जबकि मसला दूर अरब देश का था।

ऐसी ही वारदात हुई जब रोहिंगिया मुस्लमानों को लेकर लखनऊ के हजरतगंज तक बल्लम, भाला, बरछी, लाठी, छूरा लेकर स्थानीय मुस्लमानों ने हमला बोला था। रोहिंगिया को बसाने का अधिकार न भारत सरकार को था और न राज्य शासन को। अब तीन हजार किलोमीटर इन बर्मी नागरिकों के घर्षण से लखनऊ के मुसलमानों का कैसा सरोकार?

अगर वैश्विक इस्लाम को स्थानीय अकीतमंदों से जोड़ा जायेगा तो सार्वभौम भारत राष्ट्र की संप्रभुता की मान्यता क्या रहेगी? तो फिर लाजिमी है कि सेना और पुलिस को नियंत्रण हेतु असीमित बल मिल जायेगा और संघर्ष भी खूनी होगा।
यहां विशेष सवाल उठता है कि क्यों भारतीय मुस्लमान संगठित होकर राष्ट्रीय मुद्दे पर ही एकाग्र नहीं होते? इस्लामी तजीमें, मजलिसें, अजुमनें, म​हफिलें, मकतब, मदरसे आदि की सामाजिक भूमिका क्या होगी? यदि पुलिस और सेना पर ही हल निकालना छोड़ दिया जायेगा तो परिणाम स्पष्ट है। तनाव बढ़ेगा, समाधान नहीं हासिल होगा। दंगों का परिणाम देख चुके हैं। अटल बिहारी वाजपेयी कहते थे दंगा मुसलमान शुरू करते हैं। अधिकतर हानि भी ये अल्पसंख्यक ही भुगतते है। अब समझना मुसलमानों को है। इसी सिलसिले में यदि सुदूर पेरिस की दुर्घटना पर यूपी और मध्य प्रदेश के शहरों में इस्लामी एकजुटता दिखानी है तो मसला राष्ट्रीय नहीं रहेगा। सीमा पार कर जायेगा। अभी तक का अनुमान यही रहा है कि हानिप्रद ही होता है सब।

एक जुड़ा हुआ प्रश्न है कि जनता के मसाइल पर ऐसा जुनून क्यों नहीं उभरता है? उदाहरणार्थ बेरोजगारी, कानून व्यवस्था, बलात्कार की घटनाओं, खराब सड़क या पेयजल की उपलब्धि आदि।
यदि समाज से सटे नेतागण अब भी स्वार्थपरता में धंसे रहे तो देश का भविष्य क्या होगा? इसका सभी अनुमान लगा सकते हैं। तो इस पृष्ठभूमि में फ्रांस के राष्ट्रपति की चेतावनी पर गौर करना होगा। कल्पना कर ले यदि राष्ट्रपति माक्रोन फ्रांस में बसे अरब मुसलमानों को निकालना शुरू करें तो ये भी एक विकराल समस्या होगी। फ्रांस की सेना तथा पुलिस विशाल शक्तिसम्पन्न हैं। अत: माक्रोन की चेतावनी का आंकलन करने की अनिवार्यता है। वर्ना दिख रहा है कि नन्हें से इस्राइल ने बाइसो अरब मुस्लिम देशों के नाक में अकेले दम कर दिया है। फ्रांस की शक्ति तो इस्राइल से भी कई गुना अधिक है।

यहां तक संदर्भ याद आता है। गुजरात में शान्तिदूत बनकर आये सीमांत गांधी बादशाह खान अब्दुल गफ्फार खान ने अहमदाबाद की जनसभा में (1969) हिन्दूओं को चेतावनी दी थी कि ''मुसलमान बीस करोड़ (तब) है। उन्हें मारते—मारते तुम्हारे हाथ थक जायेंगे। भारत में न इतनी बसें, रेल गा​ड़ियां, पानी और हवाई जहाज है कि इन मुस्लिमों को पाकिस्तान भेज पाओगे। साथ रहना सीखो''। यहीं सुझाव आज भी समाचीन है। भारत राष्ट्र आलमी दखलंदाजी कतई बर्दाश्त नहीं करेगा। अब वोटर भी सतर्क हो गया है। अब संयम मुसलमानों से अपेक्षित है। उन्हीं के पाले में गेंद है। वह खौफ न बन जाये।

(वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)

No comments:

Post a Comment