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Saturday, October 19, 2024

क्या प्रतीक बदले तो न्याय सुधरेगा ?

 


अचरज होता है कि भारत के न्यायतंत्र के आधुनिकीकरण पर ! वर्ना जब अमेरिका जन्मा नहीं था, ब्रिटिश जनता वल्कल वस्त्र पहनती थी, मिस्र, यूनान और चीन अभी पिछड़े ही थे तब भारत में मनु, याग्यवल्क, कात्यायन, बृहस्पति आदि प्रचुरता में न्यायिक ग्रंथ लिख गए थे। मगर अब अमृतकाल में प्रधान न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड़ को इल्हाम हुआ कि सर्वोच्च न्यायालय के प्रतीकों का आधुनिकीकरण होना चाहिए।

न्यायशास्त्र का अध्ययन करते समय मुझे भी अचरज ही होता था कि पुरातन अध्ययन के आधुनिकीकरण का मुहूर्त कब आएगा ? कानून के सामने सभी समान हैं, यह तो ध्रुव सत्य है। इसीलिए हैरानी होती है कि समतामूलक भारत को इतना अरसा क्यों हुआ इसे लागू करने में। ब्रिटिश साम्राज्यवादी धुरंधर विधिवेत्ता भी रहे। वे भी जागने में काफी पिछड़ गए। मसलन एक सर्वमान्य नियम है कि कानून कभी विषमता नहीं करता। फिर भी गोस्वामी तुलसीदास सदियों पूर्व लिख गए कि "समरथ को नहीं दोष गोसाई।"

क्लेशदायी बात यह भी रही कि भारतीय महाद्वीप में भी ऐसी ही नाइंसाफी पनपती रही। लोग डॉ. भीमराव अंबेडकर की बड़ी श्लाघा करते हैं ? तो क्या इस दलित पुरोधा ने संविधान में सवर्णों के साथ धोखा नहीं किया ?

विभाजित भारतीय उपमहाद्वीप के राजनेता और स्वाधीनता-सेनानी लोग अधिकांश विधिवेत्ता ही रहे। राजेंद्र प्रसाद, नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना आदि मगर इन सभी ने बिखरे समाज को ही पनपाया। नेहरू तो अत्यधिक पक्षपाती रहे। मुसलमानों के। मुसलमानों की अनगिनत स्त्री-सुख निर्बाध मिले। हिंदू के साथ तो अर्धांगिनी एकल ही !! अंततः नरेंद्र मोदी ने एक नर का नारी वाला युगल कराया।

विधिवादी दार्शनिक गुआन झोंग (720-645 ईसा पूर्व) ने घोषणा की कि "राजा और उसकी प्रजा चाहे कितनी भी बड़ी या छोटी क्यों न हो, कानून का पालन करना महान व्यवस्था होगी"। बाइबल कहती है कि "तुम और परदेशी प्रभु के सामने एक समान होंगे: तुम पर और तुम्हारे बीच रहने वाले परदेशी पर एक ही नियम लागू होंगे।"

अमेरिका के नेब्रास्का राज्य ने 1867 में "कानून के समक्ष समानता" के आदर्श वाक्य को अपनाया। यह राज्य के झंडे और राज्य की मुहर दोनों पर दिखाई देता है। इस आदर्श वाक्य को नेब्रास्का में अश्वेत लोगों और महिलाओं के लिए राजनीतिक और नागरिक अधिकारों का प्रतीक बनाने के लिए चुना गया था , विशेष रूप से नेब्रास्का की गुलामी की अस्वीकृति। दक्षिण अफ़्रीकी स्वतंत्रता चार्टर 1955 में अपनाए गए की पाँचवीं माँग रही, "क़ानून के समक्ष सभी समान होंगे!"

याद रहे मिस्र ने विश्व न्यायतंत्र को तराजू दिया। यह न्याय की प्रतीक है। संतुलन का भी। यूनानी सभ्यता से न्याय की देवी यूरोप और अमेरिका पहुंची। इसे भारत ब्रिटेन के एक अफसर लेकर आए थे, 17वीं सदी में ब्रिटिश काल में 18वीं शताब्दी के दौरान न्याय की देवी की मूर्ति का सार्वजनिक इस्तेमाल किया जाने लगा। भारत की आजादी के बाद न्याय की देवी को उसके प्रतीकों के साथ भारतीय लोकतंत्र में स्वीकार किया गया।

अलग-अलग देशों में न्याय की देवी कुछ अलग-अलग रूपों में देखने को मिलती है। लेडी जस्टिस की मूर्ति आम तौर पर एक खड़ी या बैठी हुई महिला के रूप में होती है। वह आम तौर पर नंगे पैर होती है और उसके बाल या तो उसके कंधों तक लटकते हुए होते हैं या फिर बंधे होते हैं। कहीं-कहीं उसके बाल सिर के चारों ओर फैले हुए होते हैं। वह एक हाथ में तराजू और दूसरे में तलवार रखती है। आमतौर पर तराजू बाएं हाथ में और तलवार दाएं हाथ में होती है। करीब सभी जगह उसकी आंखों पर पट्टी बंधी होती है।

फिलहाल हर परिवर्तन केवल प्रतीकात्मक होता है। जब तक मानव न्यायप्रिय नहीं बनता समाज अत्याचारी रहेगा, क्योंकि समाज का आधार ही शक्तिपूजा और निरंकुश्ता रहेगी।
(वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)

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