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Thursday, October 1, 2020

बाबरी का फैसला जैसा भी है, बर्दाश्त करें


बाबरी मस्जिद को गिराने के बारे में अब जो फैसला आया है, उस पर तीखा विवाद छिड़ गया है। इस फैसले में सभी कारसेवकों को दोषमुक्त कर दिया गया है। कुछ मुस्लिम संगठनों के नेता कह रहे हैं कि यदि मस्जिद गिराने के लिए कोई भी दोषी नहीं है तो फिर वे गिरी कैसे ? क्या वह हवा में उड़ गई ? सरकार और अदालत ने अभी तक उन लोगों को पकड़ा क्यों नहीं, जो मस्जिद को ढहाने के दोषी थे? जो सवाल हमारे कुछ मुस्लिम नेता पूछ रहे हैं, उनसे भी ज्यादा तीखे सवाल अब पाकिस्तान के नेता, अखबार और चैनल पूछेंगे। इस फैसले को लेकर देश में सांप्रदायिक असंतोष और तनाव फैलाने की कोशिशें शुरु हो गई हैं।

मान लें कि सीबीआई की अदालत श्री लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरलीमनोहर जोशी और उमा भारती— जैसे सभी आरोपियों को सजा देकर जेल भेज देती तो क्या होता ? पहली बात तो यह कि इन नेताओं ने बाबरी मस्जिद के उस ढांचे को गिराया है, इसका कोई भी ठोस या खोखला—सा प्रमाण भी उपलब्ध नहीं है। यह ठीक है कि ये लोग उस प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे थे लेकिन इनमें से किसी ने उस ढांचे की एक ईंट भी तोड़ी हो, ऐसा किसी फोटो या वीडियो में नहीं देखा गया। इसके विपरीत इन नेताओं ने उस वक्त भीड़ को काबू करने की भरसक को​शिश की, इसके कई प्रमाण उपलब्ध हैं। आडवाणीजी ने तो सारी घटना पर काफी दुख भी प्रकट किया।

यदि अदालत इन दर्जनों नेताओं को अपराधी ठहराकर सजा दे देती तो क्या होता ? यही माना जाता कि ठोस प्रमाणों के अभाव में अदालत ने मनमाना फैसला दे दिया है लेकिन सवाल यह भी है कि आखिरकार वह मस्जिद जिन्होंने गिराई, उन्हें क्यों नहीं पकड़ा गया और उन्हें सजा क्यों नहीं दी गई ? क्या किसी मंदिर या मस्जिद या गिरजे को कोई यों ही गिरा सकता है ? क्या उसको गिराना अपराध नहीं है ? यदि आप मानते हैं कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में यह अपराध हुआ है तो वे अपराधी कौन हैं ? उन्हें पकड़ा क्यों नहीं गया ? जिन्होंने मस्जिद गिराई है, उनमें इतना नैतिक साहस तो होना चाहिए था कि वे सीना ठोककर कहते कि हां, हमने गिराई है। जो सजा आप देना चाहते हैं, हमको दीजिए।
अदालत का कहना है कि सबूत बहुत कमजोर थे। नेताओं के रेकार्ड किए हुए भाषण अस्पष्ट थे। उन्हें सुनकर उनका ठीक—ठाक अर्थ समझना मुश्किल था। जो फोटो सामने रखे गए, उनमें से चेहरों को पहचाना नहीं जा सकता था। अदालत तो ठोस प्रमाणों के आधार पर फैसला करती है। यदि प्रमाण कमजोर हैं तो इसमें अदालत का क्या दोष है? प्रमाण जुटाना तो सीबीआई का दायित्व है लेकिन उसके बारे में तो कहा जाता है कि वह पिंजरे का तोता है।

मान लें कि सीबीआई ठोस प्रमाण जुटा लेती और जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि बाबरी मस्जिद का ध्वंस कानून का भयंकर उल्लंघन था और भाजपा के इन नेताओं को सजा हो जाती तो क्या हो जाता ? क्या मस्जिद फिर खड़ी हो जाती ? जो दो—ढाई हजार लोग उसी विवाद के कारण मारे गए थे, क्या वे वापस आ जाते ? मंदिर—मस्जिद पर पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने जो लगभग सर्वमान्य फैसला दिया है, क्या वह निरर्थक सिद्ध नहीं हो जाता ? देश में क्या हिंदू—मुस्लिम तनाव दुबारा नहीं बढ़ जाता? अभी नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश में जो आंदोलन—प्रदर्शन चल रहे थे, क्या उनका विरोध और ज्यादा तूल नहीं पकड़ता ? यदि कुछ भाजपाई नेताओं को चार—पांच साल की सजा हो जाती तो क्या वे ऊंची अदालतों के द्वार नहीं खटखटाते ?

पहले ही इस मुकदमे को तय होने में 28 साल लग गए। जिन 49 लोगों पर यह मुकदमा चला था, उनमें से 17 तो इस संसार से विदा हो गए हैं। उनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी भी थे। 2009 में लिबरहान आयोग ने 900 पृष्ठों की एक रपट इस मामले पर तैयार करके दी थी। सीबीआई ने 850 गवाहों से बात करके 7000 दस्तावेजों को खंगाला था। मान लें कि वर्तमान मोदी सरकार की जगह कोई और सरकार दिल्ली में बैठी होती और वह अदालत पर दबाव डलवाकर या सच्चे—झूठे कई प्रमाण जुटाकर इन आरोपियों को कठघरे में डलवा देती तो क्या भारतीय लोकतंत्र के लिए वह शुभ होता ?

यदि राम मंदिर के नेताओं को जेल हो जाती तो जरा सोचिए कि आज के भारत का हाल क्या होता ? ज्यादातर नेता वरिष्ठ नागरिक हैं कुछ नेता तो एकदम किनारे पर बैठे हैं। जनता में उनके प्रति बहुत श्रद्धा है। यदि यह फैसला उनके खिलाफ जाता तो जरा सोचिए कि देश में एक नया तूफान उठ खड़ा होता या नहीं होता ? आजकल पूरा देश कोरोना की महामारी से जूझ रहा है, लद्दाख में फौजी—संकट आन खड़ा है और कश्मीर में भी काफी उहा—पोह है, ऐसे हालात में बुद्धिमत्ता इसी में है कि यह फैसला किसी को कैसा भी लगे, फिर भी इसका स्वागत किया जाए।

इस मौके पर एक प्रासंगिक घटना यह भी हुई कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत ने एक बड़ी घोषणा कर दी। इसे मैं बड़ी घोषणा इसलिए कह रहा हूं कि अनेक हिंदू साधु—संत संगठन मांग कर रहे हैं कि मथुरा और काशी में भी मस्जिदों को हटाकर मंदिर बनाए जाएं। मोहनजी ने कह दिया ​है कि यह काम संघ की कार्यसूची में नहीं है। इसी तरह उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून के बारे में भी कह दिया है कि पड़ौसी देशों के हर शरणार्थी का स्वागत किया जाना चाहिए, उसका मजहब चाहे जो होे। बाबरी मस्जिद का यह फैसला अगर उल्टा आ जाता तो भारतीय लोकतंत्र और हिंदुत्व की राजनीति में आजकल जो ये स्वस्थ प्रवृत्तियां उभर रही हैं, वे काफी शिथिल पड़ जातीं।

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)

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