रक्षा मंत्री राजनाथसिंह ने लोकसभा में आज एक ऐसे विषय पर भाषण दिया, जो 1962 के बाद का सबसे गंभीर मुद्दा था। गलवान घाटी में हुई हमारे जवानों की शहादत से पूरा देश गरमाया हुआ है। करोड़ों लोग बड़ी उत्सुकता से जानना चाहते थे कि गलवान घाटी में चीन के साथ मुठभेड़ क्यों हुई ? जब प्रधानमंत्री ने यह कहा था कि चीनियों ने हमारी जमीन पर कोई कब्जा नहीं किया और वे हमारी सीमा में घुसे नहीं तो रक्षा मंत्री को यह बताना चाहिए था कि उस मुठभेड़ का असली कारण क्या था ? आश्चर्य की बात है कि जिस मुद्दे पर सारे देश का ध्यान टिका हुआ है, उसकी चर्चा के वक्त सदन में प्रधानमंत्री मौजूद नहीं थे। रक्षा मंत्री ने वे सब बातें दोहराईं, जो प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और वे स्वयं कहते रहे हैं। उन्होंने भारतीय फौज की वीरता और बलिदान को बहुत प्रभावशाली और भावुक ढंग से रेखांकित किया। उनके भाषण का सार यही है कि दोनों देश सीमा-विवाद को शांति से निपटाना चाहते हैं। दोनों युद्ध नहीं चाहते। रक्षा मंत्री ने अपने भाषण में जरा भी आक्रामक-मुद्रा अख्तियार नहीं की। उन्होंने बहुत ही संयत शब्दों में बताया कि दोनों पक्षों ने माना कि 3500 किमी की भारत-चीन के बीच जो वास्तविक नियंत्रण रेखा है, वह कितनी अनिश्चित है, अनिर्धारित है और कितनी अस्पष्ट है। वे यह भी बता देते तो ठीक रहता कि साल में कई सौ बार उनके और हमारे सैनिक और नागरिक उस रेखा का अनजाने ही उल्लंघन करते रहते हैं। रक्षा मंत्री ने यह भी बताया कि दोनों पक्ष सीमा पर यथास्थिति बनाए रखने पर राजी हो गए हैं। साथ ही उन्होंने माना है कि जो भी आपस में बैठकर तय किया जाएगा, उसका पालन दोनों पक्ष अवश्य करेंगे। मुझे खुशी होती अगर राजनाथजी इशारे में भी यह कहते कि उस नियंत्रण-रेखा को, जो झगड़े की रेखा है, उसे वास्तविक बनाने पर भी दोनों देश विचार कर रहे हैं ताकि हमेशा के लिए इस तरह के विवादों का खात्मा हो जाए। ऐसा स्थायी इंतजाम करते वक्त बहुत-कुछ ले-दे तो करना ही पड़ती है। रक्षा मंत्री ने अपने बहादुर फौजी जवानों का जबर्दस्त उत्साहवर्द्धन किया लेकिन अपने आत्मीय मित्र राजनाथजी से पूछता हूं कि उनका ‘हिंगलिश’ भाषा में दिया गया भाषण कितने जवानों को समझ में आया होगा। किसी अधपढ़ अफसर का लिखा हुआ भाषण लोकसभा में पढ़ने की बजाय वे अपनी धाराप्रवाह, सरल और सुसंयत शैली में हिंदी-भाषण देते तो उसका प्रभाव कई गुना ज्यादा होता। हिंदी-दिवस के दूसरे दिन उनके इस ‘हिंगलिश-भाषण’ ने उनके प्रशंसकों को आश्चर्यचकित कर दिया। भारत-चीन को मिलाते-मिलाते उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी का घाल-मेल कर दिया।
(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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