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Sunday, August 30, 2020

संस्मरण: नंदन और कादम्बिनी ने दी जीवन की सर्वश्रेष्ठ खुशियां!


नंदन और कादम्बिनी के बंद होने की खबर से सन्नाटे में हूं, सदमे में हूं, आहत हूं, अत्यंत दुखी हूं। ऐसा लग रहा है, जैसे मेरा कोई सबसे प्यारा दोस्त हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कह गया हो। इन दोनों ही पत्रिकाओं का मेरे जीवन (यहां करियर शब्द नहीं लिख रहा, क्योंकि यह जीवन की तुलना में काफी छोटा और तुच्छ है) में विशेष योगदान रहा है। बिना अतिशयोक्ति का इस्तेमाल किये यदि सच कहूं, तो इन दोनों पत्रिकाओं ने ही मुझे जीवन की सर्वश्रेष्ठ खुशियां दी हैं।

सन 1987 का वाकया है, जब मैं महज 11 साल का था और सातवीं कक्षा में पढ़ता था। नंदन का मैं नियमित पाठक था। इसमें छपी सारी कहानियां मैं उसी दिन पढ़ जाता था, जिस दिन इसे खरीद कर लाता था। उन दिनों पिताजी की पोस्टिंग मधुबनी में थी और हमलोग भौआरा इलाके में रहते थे। बाटा चौक वहां से तीन चार किलोमीटर तो रहा होगा, जहां की एक दुकान से मैं पत्रिकाएं खरीदा करता था।
उन्हीं दिनों नंदन ने "अपना देश प्रतियोगिता" आयोजित की थी, जिसमें पौराणिक कथाओं और भारत के इतिहास से जुड़े अनेक प्रश्न थे। यह मेरी रुचि का विषय था, क्योंकि उन दिनों गीता के अनेक श्लोक मुझे याद थे। गीता प्रेस वाली बच्चों की सारी किताबें घोंटकर पी गया था। और तो और, प्रभुदत्त ब्रह्मचारी की भारी भरकम श्रीमद्भागवत कथा और हिंदी में उपलब्ध अन्य कई पौराणिक ग्रंथों को भी आत्मसात कर चुका था। खुद नंदन में भी पौराणिक और ऐतिहासिक कथाएं खूब छपती थीं। उनसे ज्ञानवर्धन होता रहता था।
तो मैंने ठान लिया कि इस प्रतियोगिता में हिस्सा लूंगा। ज़्यादातर सवालों के जवाब खुद हल किये और कुछ सवालों पर अपना कन्फ्यूजन दूर करने के लिए पिताजी और बड़े भाई की भी मदद ली। संयोग से उन दिनों बड़े चाचा भी हमारे यहां मधुबनी आए हुए थे, सो उनकी भी सहायता मिल गई। बहुत अच्छी प्रविष्टि हुई थी मेरी, इसलिए इसे भेजने के दिन से ही इसका परिणाम जानने के लिए इस कदर उत्सुक और उत्साहित था कि बखान भी नहीं कर सकता। लगता था कि झट से समय बीत जाए और आज अभी इसी वक़्त परिणाम पता चल जाए।
आम तौर पर बड़ी पत्रिकाओं के बाज़ार में आने के दिन मालूम हुआ करते थे, इसलिए जिस अंक में इस प्रतियोगिता का परिणाम आना था, उसके इंतज़ार मे एक-एक दिन बड़ी मुश्किल से कटा। फिर वह दिन भी आ ही गया, जब अंक मेरे हाथ में था और परिणाम जानने की व्यग्रता में मैंने पत्रिका के पन्ने आगे से पलटने की बजाय पीछे से पलटना शुरू किया और सीधे परिणाम वाले पृष्ठ पर जाकर अपना नाम ढूंढने लगा।
100 बच्चों को पहला पुरस्कार मिलना था और संभवतः 97वें नंबर पर मेरा नाम लिखा था। यह देखते ही मैं किस कदर खुशी से उछल पड़ा था, आज 33 साल बाद भी वह लम्हा भुलाए नहीं भूलता। मैंने तुरंत मैगज़ीन विक्रेता को पैसे दिए और अभूतपूर्व उछाह से भरा हुआ एक ही सांस में बाटा चौक से दौड़ता हुआ भौआरा स्थित अपने घर आ गया। तीन चार किलोमीटर का वह फासला हांफते-हांफते मैंने मिनटों में तय कर लिया था। जैसे रोम-रोम पंख बनकर मुझे आसमान में उड़ा रहे थे और मैं दौड़ते हुए नहीं, उड़ते हुए आया था। फिर उसी सांस में माताजी, पिताजी और भैया को पहले पुरस्कार के लिए चुने जाने की जानकारी दी।
इसके कुछ ही दिन बाद नंदन के संपादक जयप्रकाश भारती की चिट्ठी भी आ गई, जिसमें नीचे लिखा था- "तुम्हारे भैया जयप्रकाश भारती।" इसे याद करके आज भी मैं भावुक हो जाता हूँ।
वह पहला मौका था, जब किसी पत्रिका में मेरा नाम छपा था, कोई पुरस्कार मिला था और किसी नामचीन संपादक की चिट्ठी आई थी। सच कहूं तो उसके बाद हज़ारों लेख, सैकड़ों कविताएं, दसियों कहानियां, बीसियों व्यंग्य इत्यादि लिखे, छपे, लेकिन वैसी खुशी जीवन में फिर से एक और सिर्फ एक ही बार मिली। वह खुशी कादम्बिनी ने दी।
कादम्बिनी के संपादक राजेंद्र अवस्थी देश के अलग-अलग शहरों में कादम्बिनी साहित्य महोत्सव का आयोजन कराते रहते थे। 1996 में उन्होंने दसवां महोत्सव वाराणसी में कराया। उन दिनों मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बीए हिंदी ऑनर्स का छात्र था। कविता और कहानी की अलग-अलग प्रतियोगिताएं होनी थीं, लेकिन चूंकि कादम्बिनी मूलतः कथा पत्रिका ही थी, इसलिए कहानी प्रतियोगिता का विशेष महत्त्व था। इसलिए मैंने कहानी प्रतियोगिता में हिस्सा लिया।
चूंकि कादम्बिनी मुख्य धारा की अत्यंत प्रतिष्ठित और बड़े सर्कुलेशन वाली पत्रिकाओं में से थी, इसलिए उस प्रतियोगिता में बनारस के अनेक नामचीन लेखकों, यहां तक कि हमारे काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कई प्राध्यापकों ने भी हिस्सा लिया था। इसलिए मैं आश्वस्त नहीं था कि मैं यह प्रतियोगिता जीत सकता हूँ, इसके बावजूद कि इससे पहले मुझे उस दौर की प्रतिष्ठित संस्था बालकन जी बारी इंटरनेशनल, नई दिल्ली द्वारा 1995 के राष्ट्रीय युवा कवि अवॉर्ड से सम्मानित किया जा चुका था।
खैर, मैंने प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और, अपने सम्पर्क के तौर पर सभापति भवन, नरिया के एक नजदीकी टेलीफोन बूथ का नम्बर दिया। फिर बेसब्री से समय काटते हुए दो दिन बाद टेलीफोन बूथ पर कादम्बिनी से फोन आ भी गया। हालांकि टेलीफोन बूथ वाले भाई मुझे पक्के तौर पर यह नहीं बता सके कि मुझे पुरस्कृत करने के लिए बुलाया गया है या इस शिष्टाचार के नाते कि मैंने भी प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था।
बहरहाल, इस सूचना के बाद पहला काम मैंने यह किया कि बिना वक़्त गंवाए अपनी नीले रंग की 20 इंच की एटलस साइकिल उठाई और उसे तेज़ी से चलाते हुए बीएचयू के विश्वनाथ मंदिर में बाबा विश्वनाथ की शरण में पहुंच गया। हालांकि औढरदानी बाबा की शरण में जाकर भी मन आश्वस्त नहीं हुआ और धुकधुकी बनी रही कि जाने क्या फैसला हुआ है।
फिर यदि मुझे ठीक से याद है, तो शायद वह तारीख 22 अगस्त 1996 थी। पुरस्कार वितरण समारोह शहर के प्रतिष्ठित मुरारीलाल मेहता प्रेक्षागृह में रखा गया था। मैं जब वहां पहुंचा, तब तक हॉल खचाखच भर चुका था और बड़ी मुश्किल से मुझे बिल्कुल पीछे बैठने की जगह मिल सकी। इससे पहले मैंने ऐसा खचाखच भरा हुआ हॉल कभी नहीं देखा था, तब भी नहीं, जब जनवरी 1996 में मुझे नई दिल्ली के जनपथ स्थित नेशनल म्यूजियम ऑडिटोरियम में राष्ट्रीय युवा कवि अवॉर्ड दिया गया था। इतनी भीड़ देखकर धुकधुकी और बढ़ गई। क्या जलवा था कादम्बिनी का! वैसा जलवा भी फिर किसी पत्रिका का नहीं देखा।
फिर शुरू हुआ एलान का सिलसिला। राजेंद्र अवस्थी स्वयं पुरस्कारों का एलान कर रहे थे। कार्यक्रम में सस्पेंस बनाए रखने के लिए उन्होंने सांत्वना पुरस्कारों से शुरुआत की। उसमें भी कविता प्रतियोगिता से, क्योंकि लोगो की दिलचस्पी तो कहानी प्रतियोगिता के नतीजे जानने में अधिक थी। गुजरते समय के साथ मेरी धुकधुकी बढ़ती ही जा रही थी। उन दिनों मैं कविताएं भी लिखता था और कहानियां भी। इसलिए मन में यह ख्वाहिश अवश्य दबी हुई थी कि कविता के लिए जनवरी में पुरस्कार मिल चुका है, अगर इस अगस्त में कहानी के लिए भी मिल जाए तो भारत का स्वतंत्र और गणतंत्र होना दोनों सार्थक हो जाए। इसलिए कविता के लिए पुरस्कारों का एलान जितना लंबा खिंचा, उतनी मेरी धुकधुकी बढ़ी।
फिर जब कहानियों के लिए एलान शुरू हुआ, तो पहले सांत्वना पुरस्कार जीतने वालों के नाम घोषित होने लगे। मन इतना बेचैन था उस वक़्त कि लग रहा था, इसी में नाम आ जाए। सांत्वना पुरस्कारों में नाम नहीं आया, तो धुकधुकी को धकेलकर निराशा ने हृदय में घर करना शुरू कर दिया। फिर तृतीय पुरस्कार का एलान हुआ। नाम नहीं आया। फिर द्वितीय पुरस्कार का एलान हुआ। नाम नहीं आया। निराशा बढ़ चली थी, लेकिन मन में यह सवाल भी घुमड़ने लगा कि क्या निमंत्रण केवल समारोह में शामिल होने के लिए दिया गया था? इतनी बड़ी प्रतियोगिता, जिसमें सैंकड़ों लोगों ने हिस्सा लिया है, क्या वाकई सभी प्रतियोगियों को निमंत्रित किया जाना संभव रहा होगा? दूसरे पुरस्कार के एलान के बाद मन में यह सवाल जो घुमड़ा, आशा और निराशा तराजू के दो पलड़ों की तरह मन में ऊपर नीचे होने लगी।
द्वितीय पुरस्कार लेकर एक मोहतरमा मंच से उतर चुकी थीं। पहले पुरस्कार विजेता का एलान करते हुए अवस्थी जी सस्पेंस को और गहरा कर रहे थे। बता रहे थे- "इस प्रतियोगिता के नियम सभी प्रतिभागियों को स्पष्ट कर दिये गए थे। बता दिया गया था कि कागज के एक ही तरफ लिखना है, लेकिन इन कथाकार महोदय ने नियम का पालन नहीं किया, कागज के दोनों तरफ लिखा। नियमत: उस कहानी को हम विचार करने से बाहर कर सकते थे, लेकिन फिर हमें इतनी अच्छी कहानी नहीं मिलती। इसलिए कभी-कभी नियम भी तोड़ने पड़ते हैं। जब मैंने इस कहानी का पहला ही पैराग्राफ पढ़ा, तो आगे पढ़ने से खुद को रोक नहीं पाया। ...और फिर पढ़ता ही चला गया। कहानी के प्रवाह में बहता ही चला गया। बेहद मार्मिक कहानी है। पढ़ते हुए मेरी आंखों में कई बार आंसू आए।"
यह कहकर अवस्थी जी ने लंबी चुप्पी साध ली। उपस्थित साहित्यप्रेमियों में उत्सुकता के कारण सन्नाटा छा गया, जबकि मीडियाकर्मियों में उस लम्हे को पकड़ने की उत्तेजना के कारण कोलाहल बढ़ गया। संभवतः एक या दो मिनट ऐसा ही रहा।
फिर अवस्थी जी ने उत्सुकता और उत्तेजना को शिखर पर पहुंचाते हुए कहा- "यह कहानी है... (फिर एक पॉज) यह कहानी है- "नीरू का शून्य और भाई के तमाचे।"
इतना सुनना था कि मेरा हृदय धक्क से रह गया। खुशी ऐसी मिली कि भावुक हो उठा। आंखें डबडबा गईं। इसलिए खुशी के मारे सीट से उछल भी नहीं सका। नंदन ने उछाह से भर दिया था। कादम्बिनी ने भावुकता से भर दिया। खुशी के दो रूप। दोनों अल्टीमेट! न भूतो न भविष्यति! मैं चुपचाप सीट पर बैठा रहा और अपना नाम बोले जाने का इंतजार करने लगा कि नाम पुकारें तो सीट से उठूं।
उपस्थित लोगों में कोलाहल और बढ़ गया था- कौन हैं, कौन हैं... टाइप। कहानी का नाम सामने आ गया था, लेकिन लोगों की दिलचस्पी कथाकार का नाम जानने में थी। अवस्थी जी मंजे हुए खिलाड़ी थे। एक-एक पल उन्होंने सस्पेंस का लुत्फ उठाया और अपने समारोह को रोमांच के शिखर तक पहुंचाया।
फिर जोश में आकर एलान किया- "और इस कहानी को लिखने वाले लेखक हैं अभिरंजन कुमार। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बीए के छात्र अभिरंजन कुमार, जिन्होंने बड़े-बड़े, धाकड़ और वरिष्ठ कथाकारों के बीच अपनी किस्सागोई का परचम लहराया है। ऐसी कहानियां कभी-कभी लिखी जाती हैं। मैं बनारस की धरती का भी धन्यवाद करता हूँ, जहां आकर हमें इतनी अच्छी कहानी मिली।"
अवस्थी जी के इस एलान के बाद मैं तेज़ी से ऑडिटोरियम की सीढ़ियां उतरता हुआ मंच की तरफ बढ़ा। प्रेक्षागृह में लोगों का उत्साह मेरे लिए अकल्पनीय था। सभी लोग इस एलान से बेहद खुश थे, क्योंकि बनारस के साहित्यप्रेमी, अखबारों के पाठक और ऑल इंडिया रेडियो के श्रोता मेरे नाम से पहले से वाकिफ थे। अन्य राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं के अलावा बनारस के प्रतिष्ठित अखबारों "आज" और "गांडीव" में मैं खूब लिखा करता था। इसका फायदा यह हुआ कि वहां उपस्थित ज़्यादातर संवाददाता और फोटोग्राफर भी इस एलान से गदगद हो गए। उन्हें लगा, जैसे उनके किसी अपने भाई या फिर खुद उन्हें ही पुरस्कार मिल गया है। मंच पर जाकर जब मैं पुरस्कार ले रहा था, तो अलग-अलग अखबारों के फोटोग्राफर बढ़िया फ्रेम बनाने के लिए "अभिरंजन जी ज़रा इधर, अभिरंजन जी ज़रा इधर..." बोलकर ढेर सारी फ़ोटो क्लिक कर रहे थे।
...तो मेरे जीवन में ऐसा अपनापन भरा लम्हा कादम्बिनी ने ही दिलवाया। यह वह दौर था, जब मैं लेखन की दुनिया में बिल्कुल ताज़ा नाम था। मुझसे न किसी को द्वेष था, न ईर्ष्या थी। न किसी को मेरी टांग खींचनी थी, न किसी को रास्ता रोकना था। इसलिए उन दिनों मुझे सबसे ही झोली भरकर प्यार और प्रोत्साहन मिला।
खैर, अगले दिन बनारस के सभी अखबारों में फ़ोटो के साथ बड़ी-बड़ी खबरें छपीं। सभापति भवन, नरिया, जहां मैं रहता था, वहां के तमाम अडोसियों-पड़ोसियों ने काफी सम्मान दिया। वहीं, बीएचयू में भी वाइस चांसलर से लेकर आर्ट्स फैकल्टी के शिक्षकों और छात्रों तक सबने मुझे अपने स्नेह से सींच दिया।
फिर "नीरू का शून्य और भाई के तमाचे" कादम्बिनी के अगले अंक में भी छपी और राजेंद्र अवस्थी जी ने अपने संपादन में निकले एक कहानी संग्रह में भी उसे शामिल किया।
इस प्रसंग में एक रोचक बात यह हुई थी कि जिन मोहतरमा को द्वितीय पुरस्कार मिला था, उन्होंने प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी की कहानी चुराई थी। चूंकि संयोग से अवस्थी जी या निर्णायक मंडल के अन्य सदस्यों ने महाश्वेता देवी की वह कहानी पढ़ी नहीं थी, इसलिए उसे पुरस्कार भी मिल गया और कादम्बिनी में छप भी गई। इसके बाद तो पोल खुलनी ही थी। कादम्बिनी के लाखों प्रबुद्ध पाठकों की निगाह से यह चोरी बची रह जाती, यह संभव नहीं था। जब पाठकों ने यह चोरी पकड़ी तो उन मोहतरमा की बड़ी किरकिरी हुई।
अगले ही साल पत्रकारिता की पढ़ाई करने के लिए मैं भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), दिल्ली आ गया और आने के बाद जिन दो संपादकों से सबसे पहले मिला, वे मेरे भैया जयप्रकाश भारती और राजेंद्र अवस्थी ही थे। फिर नंदन और कादम्बिनी में मेरी और भी कई कहानियां-कविताएं छपीं। आज की तरह मोबाइल और इंटरनेट का ज़माना नहीं था वह। इसलिए जब भी कादम्बिनी में कुछ छपता था, सैंकड़ों चिट्ठियां आती थीं। उनमें अनेक चिट्ठियां आज भी मेरे गांव के बक्से में रखी होंगी, यदि दीमकों ने उन्हें अपना भोजन नहीं बना लिया हो तो।
एक और बात। जब मैं दिल्ली आया, तो पता चला कि यहां छोटे-छोटे पुरस्कारों के लिए भी लेखकों के बीच कितनी मारामारी है। जानकर मुझे इतना दुख हुआ कि महज 21-22 साल की उम्र में मैंने यह तय कर लिया कि आगे जीवन में कभी भी साहित्य या मीडिया संबंधी किसी प्रतियोगिता में न हिस्सा लूंगा, न ही किसी पुरस्कार के लिए प्रविष्टि भेजूंगा, न पुरस्कार के लिए किसी लॉबिंग में शामिल होऊंगा। अगर खुद की प्रेरणा से कोई पुरस्कृत या सम्मानित करे, तभी स्वीकार करूंगा। पुरस्कारों का लेन-देन करने वाले सभी लोग मस्त रहें। हम अपना साहित्य अपने समाज और पाठकों के लिए छोड़कर जाएंगे।
इस प्रकार, नंदन की 1987 की अपना देश प्रतियोगिता मेरे जीवन की पहली और कादम्बिनी का 1996 का साहित्य महोत्सव मेरे जीवन की आखिरी प्रविष्टि या प्रतियोगिता थी, जिसमें मैंने हिस्सा लिया था। थैंक्यू नंदन! थैंक्यू कादम्बिनी!

(वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)

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